यू-ट्यूब पर मजेदार पंजाबी कॉमेडी श्रृंखला हसब-ए-हाल और डिजिटल रंगीले के कुछ कड़ियाँ देखने के बाद, मुझे यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि आम पाकिस्तानी पंजाबी भारतीय पंजाबियों से शायद ही अलग हैं। उनके पहनावे की शैलियाँ, चेहरे का रूप रंग, नस्ल, पाक कला और खानपान का रुझान , रीति-रिवाज और बोल चाल की भाषा इत्यादि बहुत सी समानताओं को चिह्नित करते हैं। यदि कोई भी पाकिस्तानी कार्यक्रम स्पष्ट रूप से खुद को एक पाकिस्तानी श्रृंखला के रूप में नहीं बताए और पाकिस्तानी स्थानों या धार्मिक अभिवादन का संदर्भ न दे , तो आप इसे एक भारतीय श्रृंखला मानने की गलती कर सकते हैं। यहां तक कि वे जिन हास्य स्थितियों को चित्रित करते हैं, वे उल्लेखनीय रूप से यथार्थवादी हैं, जो भारतीय परिवारों, समाज, राजनीति, नौकरशाही ढांचे और पुलिस व्यवस्था की वास्तविकताओं को दर्शाती हैं। यह व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है कि भारतीय फिल्में, फिल्मी सितारे और फिल्मी गीत पाकिस्तान में बेहद लोकप्रिय हैं। इसी तरंह पाकिस्तानी गज़ल गायक और टेलीविजन धारावाहिक भारत में लोकप्रिय हैं। मैंने कई भारतीय महिलाओं जो चाहे अधेड़ उम्र की हों या युवा, को पाकिस्तानी सूट लेने की तीव्र इच्छा व्यक्त करते देखा है । पाकिस्तानियों के साथ बातचीत हमेशा सुखद और सौहार्दपूर्ण रही है। मेरे कई दोस्तों ने , चाहे वो आम व्यवसायी हों या नौकरशाह वर्ग के, मुझे पाकिस्तानी आतिथ्य के किस्सों को बड़े चाव से सुनाया है। उन्हें लगता है कि भारत में हम पाकिस्तानी आवभगत की बराबरी नहीं कर सकते।
फिर फर्क कहाँ है?
भारी मन से, मुझे यह कहना पड़ता है कि धर्म ने भारत और पाकिस्तान के बटवारे में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। क्रोध और शत्रुता ने पाकिस्तान की स्थापना के समय से ही भारत-पाक संबंधों को प्रभावित किया है; यह एक गंभीर दुर्भाग्य है जो आज भी बरक़रार है। दोनों देश रक्षा क्षेत्र में लाखों रुपये खर्च करते हैं। हथियारों के आयात में भारत पहले स्थान पर है, जबकि पाकिस्तान पांचवें स्थान पर है। ऐसा लगता है कि आपसी सम्बन्धों के सुधारने की कोई उम्मीद नहीं है, जबकि दोनों देशों के आम लोग जहां भी मिलते हैं , आपस में प्रेम और सौहार्द से मिलते हैं।
क्या कोई भी धर्म उन लोगों के खिलाफ घृणा और हिंसा की वकालत करता हैं जो किसी और धर्म का पालन करते हैं? मैंने बचपन से ही सुना है कि दुनिया का प्रत्येक धर्म प्रेम, मानवता, शांति, भाईचारे और अन्य धर्मों के प्रति सम्मान की शिक्षा देता है। ये हर व्यक्ति की स्वतंत्रता और पसंद है को वो किस धर्म को अपना कर उसका पालन करना चाहता है। धर्म एक सभ्य इंसान बनने के लिए नैतिकता और मूल्यों को सिखाता है। परिवार और समाज में किसी का जन्म विशुद्ध रूप से संयोग से होता है, और यह योजनाबद्ध नहीं होता है। एक धर्म दूसरे से कमतर या श्रेष्ठ कैसे हो सकता है? अफसोस की बात है कि कई शासकों ने लोभ और महत्वाकांक्षाओं से वशीभूत होकर लोगों को धर्म के नाम पर युद्ध करने के लिये प्रोत्साहित किया है। उन्होंने अपनी जटिल व्याख्याओं के साथ धार्मिक शिक्षाओं को विकृत किया और अपने लोगों और अन्य लोगों पर युद्ध थोपे। उनका वास्तविक उद्देश्य अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरा करना और अपनी आबादी के लिए और संसाधनों को जुटाने के लिए अधिक क्षेत्रों को जीतना था। इतिहास विजयी शासकों की कहानियों से भरा हुआ है, जिन्होंने अपनी सेनाओं को पराजित भूमि को लूटने और वहां के पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को गुलाम बनाने की अनुमति दी। पराजित लोगों ने अकथनीय अत्याचारों और हत्याओं को सहन किया। क्या धर्म इनका आदेश देते हैं? मुझे लगता है कदापि नहीं। पर ऐसी अशोभनीय घटनाएँ होती आई है, फिर चाहे वो हमलावर कोई भी थे; चाहे अरब, मंगोल, तुर्क, अफगान, पुर्तगाली, नेदरलैंड के, या ब्रिटिश और फ्रांसीसी।
भारतीय कहानी बहुत पुरानी है।
1947 में पाकिस्तान (बांग्लादेश सहित) में भारत के विभाजन के बीज बहुत पहले 712 ईस्वी में बोए गए थे, जब मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में 6,000 सीरियाई घुड़सवार सेना, एक बड़ी ऊंट सेना और सामान से लदी 3000 ऊंटों की टुकड़ी वाली एक दुर्जेय अरब सेना ने सिंध पर आक्रमण किया था। पांच ‘पत्थर प्रक्षेपी यंत्र’, वर्तमान कराची के पास एक अंतर्देशीय वाणिज्यिक बंदरगाह, देबल में, मुख्य सेना में शामिल होने के लिए समुद्र द्वारा भेजे गए थे। 500 आदमी प्रत्येक ऐसे यन्त्र को संचालित कर सकते थे, जिनमे विनाशकारी बमबारी की क्षमताएँ थीं। धार्मिक उत्साह और समृद्ध प्रांत को लूटने की संभावनाओं से प्रेरित होकर कई और सैनिक और साहसी उसकी यात्रा में उसकी सेना में शामिल हो गए। 17 वर्षीय कासिम, फारस का गवर्नर था, और वह दमिश्क में स्थित उमय्यद खलीफा के इराक के अरब गवर्नर, हजज बिन यूसुफ (जो उसका चाचा भी था ) के आदेश का पालन करते हुए सिंध पर आक्रमण करने आया था।
प्राचीन काल से ही गुजरात, मालाबार और केरल के पश्चिमी तटीय भारतीय बंदरगाहों के माध्यम से भारत की अरबों के साथ समृद्ध व्यापारिक परंपराएँ थीं। अरब के इस्लाम से प्रभावित होने के बाद भी वाणिज्य की ये परंपरा जारी रही, जबकि तब अरब खलीफा व्यापार से साम्राज्य-निर्माण की ओर अग्रसर थे। भारतीय राजाओं के सहिष्णु धार्मिक रवैये के कारण, अरब व्यापारी कई बंदरगाह शहरों और यहां तक कि शाही राजधानियों में भी अपनी मस्जिदें और घर बना पाए थे। अरबी स्वतंत्र रूप से अपने धर्म का पालन कर सकते थे और अपनी अनूठी जीवन शैली को बनाए रख सकते थे। कुछ भारतीय राजाओं के उदार दृष्टिकोण के कारण अरबों को उच्च प्रशासनिक और सैन्य पदों पर भी नियुक्त किया गया। कुछ लोगों ने अपनी सेनाओं में अरब सेनाओं की भी भर्ती की थी। मोपला (मापिला से, जिसका अर्थ है दूल्हा या बच्चा) मालाबार में एक मुस्लिम समुदाय है, जो अरबों और स्थानीय आबादी के बीच वैवाहिक गठबंधन से विकसित हुआ। यही कारण है कि वर्तमान केरल समाज आज भी विभिन धर्मों और संस्कृतियों का इंद्रधनुष है।
उस समय सिंध पर ‘चाच’ नामक ब्राह्मण के पुत्र राजा दाहिर का शासन था। चाच, राय राजवंश के, राय सहासी द्वितीय के उत्तराधिकारी बने और उन्होंने ब्राह्मण राजवंश की स्थापना की। राय राजवंश बौद्ध था, और समय सिंध की आबादी का एक बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय बौद्ध था।
इतिहासकारों ने मुहम्मद के आक्रमण के दो कारण बताए हैंः
सबसे पहले, महत्वाकांक्षी अरब खलीफाओं का मानना था कि अल्लाह (ईश्वर ) उनके पक्ष में थे, और वे अजेय थे! अपने धार्मिक उत्साह और सैन्य शक्ति की बदौलत अरबों ने चीन की सीमाओ से लेकर अटलांटिक महासागर के तट तक की धरती, जिसमें मध्य एशिया, अफगानिस्तान, मध्य पूर्व, उत्तरी अफ्रीका, स्पेन और दक्षिणी फ्रांस तक फैले क्षेत्रों को जीत लिया। यह सब पैगंबर मुहम्मद की मृत्यु ( 632 ईस्वी )के बाद लगभग एक सदी में हासिल किया गया था । चूँकि वे पहले ही अफगानिस्तान और फारस जीत चुके थे, वे भारत में विस्तार के लिए तैयार थे। सिंध, अरब द्वारा जीते गए बलूचिस्तान की सीमा के साथ लगा हुआ था। अतीत में, भारत ने ठाणे (636 ईस्वी), भरूच (643 ईस्वी) और सिंध के देबल में अरब आक्रमणों को बहादुरी से खदेड़ दिया था (643 ईस्वी).
दूसरा कारण था कि सिंध के राजा अपने तटों पर सक्रिय समुद्री डाकुओं को नियंत्रित करने में असमर्थ थे; वे नियमित रूप से कच्छ, देबल और काठियावाड़ में अपने ठिकानों से अरब नौवहन को निशाना बनाते थे।
जो घटना अरबियों के आक्रमण का कारण बनी, वह इस प्रकार थी:
“सिंधु डेल्टा में सक्रिय कुछ समुद्री डाकुओं ने बंदरगाह शहर देबल से एक अरब जहाज पर कब्जा कर लिया था। यह जहाज सीलोन (श्रीलंका) के राजा की और खलीफा अल-वालिद प्रथम के लिए उपहार ले जा रहा था। जहाज को लूटने के अलावा, समुद्री डाकुओं ने उस पर सवार अरब लड़कियों का भी अपहरण कर लिया। वे एक मुसलमान व्यापारी की अनाथ बेटियाँ थीं जिसकी श्रीलंका में मृत्यु हो गई थी। इराक के गवर्नर हज्जाज को जैसे ही इस घटना के बारे में पता चला तो उसने तुरन्त राजा दाहिर को पत्र लिखकर मांग की कि अरब लड़कियों को तुरंत रिहा किया जाए, इस मामले में शामिल समुद्री डाकुओं को दंडित किया जाए और जो नुकसान हुआ उसके लिए मुआवज़ा दिया जाए। राजा दाहिर ने कहा कि वह मांगों को पूरा नहीं कर सकते क्योंकि समुद्री डाकुओं पर उनका कोई नियंत्रण नहीं था। हजाज को दाहिर का ये जवाब सही नहीं लगा; क्योंकि उस समय भारत के कई तटीय शासकों को समुद्री डाकुओं के साथ सांठगांठ करने और उनकी लूट को साझा करने के लिए जाना जाता था। हजज ने दो दंडात्मक अभियान भेजे, एक भूमि से और दूसरा समुद्र से। लेकिन दोनों असफल रहे।
मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में, सिंध को जीतने और राजा दाहिर को सबक सिखाने के लिए यह तीसरा अभियान था। मुहम्मद ने छोटे, लेकिन खतरनाक मकरान (बलूचिस्तान) समुद्री तट मार्ग को अपनाया। यह वही शुष्क मार्ग था जिसके माध्यम से सिकंदर ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में भारत से पीछे हट कर गया था। कुछ प्रारंभिक असफलताओं का सामना करना करने के बावजूद, अरब सेना ने ‘देबल किले’ पर धावा बोल दिया, जहाँ राजा दाहिर की सेना अच्छी तरह से तैनात थी। हालाँकि राजा दाहिर की सेना ने कड़ा प्रतिरोध किया, लेकिन वह घातक ‘पत्थर प्रक्षेपी यंत्र’ द्वारा की गई बमबारी का सामना नहीं कर सकी। तीन दिनों तक, देबल में बेरहमी से नरसंहार और संपत्ति की लूटपाट की गई। सिंध के सरदारों को डराकर अधीनता में लाना मुहम्मद की रणनीति थी। मुहम्मद ने उन सभी वयस्कों को मार डाला जिन्होंने मुसलमान बनने से इनकार कर दिया था। उनकी पत्नियों और बच्चों को गुलाम बना लिया गया । मुहम्मद ने पारंपरिक लूट (घनिमा) का पांचवां हिस्सा खलीफा के खजाने में भेजा, बाकी को अपने सैनिकों के बीच विभाजित किया। अपनी संचार और आपूर्ति की लाइन को सुरक्षित करने के लिए, मुहम्मद ने देबल में एक छावनी की स्थापना की। फिर वह राजा दाहिर का सामना करने के लिए सिंधु नदी के किनारे उत्तर की ओर बढ़ा।
रास्ते में उन्होंने नेरुन पर विजय प्राप्त की, जो आधुनिक हैदराबाद (पाकिस्तानी शहर ) के दक्षिण में है। सहवन, एक वाणिज्यिक केंद्र, ने बिना किसी प्रतिरोध के आत्मसमर्पण कर दिया। बहुत बहादुरी से लड़ने के बावजूद, निचले सिंध के जाट अंततः हार गए। सिंधु के पूर्वी तट पर डेरा डाले हुए, मुहम्मद कासिम ने जाटों और नाविकों के साथ सौदेबाजी करने के बाद, “बेट द्वीप के राजा” मोकाह बसाया की सहायता प्राप्त की। उनकी सहायता से, उन्होंने जून 712 ईस्वी में सिंधु नदी पार की, और भट्ट के ठाकुर और पश्चिमी जाटों की सेना उनके साथ शामिल हो गई।
वह ब्राह्मणाबाद (हैदराबाद के उत्तर) के किले के पास पहुंचे जहाँ दाहिर अपने सेना के साथ लड़ने के लिए तैयार था। वहाँ, दाहिर की सेना के साथ एक भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें पूर्वी जाट भी शामिल थे। हाथी पर बैठे दाहिर ने बहादुरी से लड़ाई में भाग लिया, जो पूरे दिन जारी रही। एक अरब सैनिक के अग्नि तीर ने दाहिर के हौदे में आग लगा दी। दाहिर हाथी से उतरा और बहादुरी से लड़ा, लेकिन शाम होते उसकी मौत हो गई। उनके सैनिक दहशत में भाग गए, जबकि अरब सेना बेरहमी से नरसंहार में लिप्त हो गई। दाहिर के कटे हुए सिर को अभियान की लूट के पारंपरिक हिस्से के साथ खलीफा को एक तोहफे के रूप में भेजा गया।
जब अरब सेना किले में घुस गई, तो दाहिर की एक रानी आग में जल कर सती हो गई । एक अन्य रानी, रानी लाडी ने आत्मसमर्पण कर दिया और अंत में मुहम्मद से शादी कर ली। दाहिर की दो कन्याओं, सूर्यदेवी और परमालदेवी को पकड़ लिया गया और उन्हें खलीफा के पास श्रद्धांजलि के रूप में भेज दिया।
मुहम्मद ने सिंध के सरदारों और जनता को जीतने के लिए कूटनीति और आतंक दोनों का इस्तेमाल किया। उन्होंने विरोध करने वालों को मार डाला, उनकी महिलाओं और बच्चों को पकड़ लिया और उनके मंदिरों को अपवित्र कर दिया। उन्होंने उन लोगों को पूर्ण सुरक्षा प्रदान की, जिन्होंने समर्पण कर के अपना जीवन जारी रखने की अनुमति मांगी । बौद्ध निवासी बेहद शांतिप्रिय, अहिंसक और व्यापार और वाणिज्यिक गतिविधियों में थे। उन्होंने तुरंत आत्मसमर्पण कर दिया। मुहम्मद ने सभी शत्रु सैनिकों का सिर कलम करते हुए कारीगरों, व्यापारियों और आम लोगों को बख्शा। मुहम्मद ने उन नागरिकों पर जिज़्या (चुनाव कर) लगाया जो इस्लाम में परिवर्तित नहीं हुए थे। सरकार ने उन्हें अपनी मूर्तियों की पूजा जारी रखने और यहां तक कि अधिक मंदिरों का निर्माण करने की अनुमति दी। ब्राह्मणों को समाज में उनकी प्रमुख स्थिति में बहाल किया गया, और उन्होंने बदले में, लोगों को अरबों के अधीन होने और जिज़्या का भुगतान करने के लिए राजी किया। ब्राह्मणों को व्यापारियों, हिंदू प्रमुखों और आम लोगों से अपनी प्रथागत फीस वसूलने की प्रथा जारी रखने की अनुमति दी गई थी।
युद्ध में जीते हुए क्षेत्रों के प्रशासन को व्यवस्थित करने के बाद, मुहम्मद उत्तर की ओर बढ़ा; रास्ते में कई लड़ाइयाँ लड़ते हुए, 713 ईस्वी की शुरुआत में उसने मुल्तान शहर पर कब्जा कर लिया। मुहम्मद ने तीन साल तक सिंध पर शासन किया और बाद में खलीफा ने उन्हें वापस बुला लिया। मुहम्मद, जिसने खुद बहुत बहादुरी और क्रूरता से युद्ध लड़े थे, का स्वयं का अंत दुखद हुआ। इराक में नए खलीफा ने कथित तौर पर उसे जंजीरों में बांध दिया और कैद कर लिया; कैद में ही उसकी मौत हो गई।
उमय्यद खलीफा उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (717-720 ईस्वी) ने हिंदू राजकुमारों को इस्लाम में परिवर्तित करने की नीति का जोरदार तरीके से पालन किया। राजा दाहिर के बेटे जयसिंहा ने भी इस्लाम धर्म अपना लिया लेकिन बाद में उसे छोड़ दिया। वह युद्ध के मैदान में मारा गया। भारत के अंदरूनी हिस्सों में कई छापों के बावजूद, काठियावाड़ और उज्जैन तक पहुंचने के बाद भी, अरब अधिक क्षेत्रों को जीतने में सफल नहीं हो सके। तीन शताब्दियों के लम्बे अंतराल में अरब शासन की पकड़ सिंध पर मजबूत होती गयी। इससे भारत के पश्चिमी तट पर अरब व्यापार को मजबूत करने में मदद मिली। अरबों ने भारत के पूर्वी तट पर नई बस्तियाँ भी स्थापित कीं, जो दक्षिण पूर्व एशिया तक फैली हुई थीं। इसके परिणामस्वरूप अरब जनजातीय जीवन और सिंधी जनजातीय प्रतिरूपों का एकीकरण भी हुआ। अरबों ने स्थानीय रीति-रिवाजों और शिष्टाचार को अपनाया। कुरान का अनुवाद 886 ईस्वी में एक स्थानीय हिंदू प्रमुख के अनुरोध पर सिंधी में किया गया था। सिंध की शहरी आबादी अरबी और संस्कृत दोनों बोलने लगी। कुफा के चमड़ा श्रमिकों ने सिंध और मकरान के चर्मकारों को खजूर के साथ चमड़ा बनाने की कला में प्रशिक्षित किया, जिससे नरम चमड़े का उत्पादन हुआ। सिंध के चमड़े के जूते खलीफा के क्षेत्रों के लिए ‘प्रीमियम लक्जरी आइटम’ बन गए। सिंध ऊंटों की उन्नत नस्लों की पड़ोसी देशों में मांग थी। अब्बासिद दरबारों ने चिकित्सा, खगोल विज्ञान, नैतिकता और प्रशासन पर संस्कृत रचनाओं का अरबी और फारसी में अनुवाद किया।
सिंध के काफी लोग, जो पहले हिंदू और बौद्ध थे, इस्लाम में परिवर्तित हो गए और इस्लामी संस्कृति में आत्मसात हो गए। यही बात बाद में हुई, जब महमूद गजना ने 1001 ईस्वी से 1025 ईस्वी में शुरू होने वाले हमलों की एक श्रृंखला में भारत पर हमला किया, जिसके बाद 1191 और 1192 ईस्वी में मुहम्मद गोरी के हमले हुए।
इसलिए, ज्यादातर बल और आतंक के माध्यम से और कुछ अवसरों पर स्वेच्छा से, सिंध और पंजाब के लोग, जो पहले समान सांस्कृतिक विरासत और धर्म साझा करते थे, हिंदू और मुसलमानों में विभाजित हो गए। चूंकि विजेता प्रशासनिक कारणों से समाज में बड़ी गड़बड़ी पैदा नहीं करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने लगो को इस्लाम धर्म अपनाने के लिए केवल प्रोत्साहित किया और धर्मांतरण के लिए मजबूर नहीं किया। परन्तु अंग्रेजों की ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दरार डालती रही, जिससे अंततः भारत का विभाजन हुआ।
अफ़सोस! भारत-पाक सीमा के दोनों ओर के लोग काफी हद तक समान हैं। लेकिन गहरे धार्मिक विभाजन के फलस्वरूप, जिसे बाद में राजनीती और सियासत का लिबास पहना दिया गया … अंतत दो राष्ट्र बन गए: भारत और पाकिस्तान ।